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अब भी महिलाओं के साथ हद दर्जे की गैरबराबरी, गांव में हर महीने 'सीताओं' की अग्निपरीक्षा!, क्या 'स्त्री' होना पाप है?

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दुर्ग संभाग

Even today there is extreme inequality against women, every month Sitas are put to the test in the village! Is it a sin to be a woman?

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May 19, 2025 - 21:41

अब भी महिलाओं के साथ हद दर्जे की गैरबराबरी, गांव में हर महीने 'सीताओं' की अग्निपरीक्षा!, क्या 'स्त्री' होना पाप है?

राजनांदगांव : भारत एक तरफ चांद और मंगल तक पहुंच गया वहीं दूसरी तरफ इसी देश में कई स्त्रियां जमीन पर अग्निपरीक्षा देने को मजबूर हैं. मतलब जिस युग में विज्ञान अपने चमत्कारों से रोज नए आयाम गढ़ रहा है. वहीं हमारे देश में खासकर गांवों में महिलाओं को अभी भी अंधविश्वास का सामना करना पड़ रहा है. हम बात कर रहे हैं राजनांदगांव के गौटियाटोला गांव की.. यहां हर महीने महावारी के दिनों में महिलाओं को अकेलेपन का शिकार होना पड़ता है. इतना अकेलापन की बेटी मां के कमरे में नहीं जा सकती. रसोई घर से लेकर उसका अपना कमरा भी उसके लिए अछूत हो जाता है. यानी यहां हर महीने सीताओं को अग्नि में जलने को नहीं कहा जाता बल्कि अकेलेपन में गलने के लिए छोड़ दिया जाता है.
गौटियाटोला में ये गड़बड़ी क्यों है?
दरअसल राजनांदगांव जिले की सांझ में बसा एक छोटा-सा गांव है गौटियाटोला. जहां सूरज की किरणें तो पहुंची हैं. लेकिन चेतना अब भी रास्ता ढूंढ रही है. यहां की बेटियां, बहुएं और माएं हर महीने उन दिनों में एक कोने में सिसकती हैं.. जहां न पूरी छत होती और न ही दीवारें उनकी पुकार सुनती हैं. ये तब होता है जब महिलाओं को पीरियड्स आते हैं- तब उन्हें एकांत, अलगाव और अपवित्रता का अभिशाप झेलना पड़ता है. उनके कदम घर के आंगन तक नहीं पड़ सकते. वो आंगन जहां उन्होंने कल ही झाड़ू-पोंछा लगाया था वो आज उनके लिए वर्जित हो जाता है. गांव की गुनवंता मांडवी बताती हैं कि ये परंपरा पुराने वक्त से चली आ रही है. हमें किचन में नहीं जाने दिया जाता है लिहाजा हम अलग से रहते हैं और अपना खाना में अलग से बनाते हैं. कुछ ऐसा ही  कहना है चंद्रकला मांडवी का...वो भी उन दिनों में एक अलग रुम में रहती हैं और अपना खाना खुद ही बनाती हैं. हालात को समझने के लिए हमने कई तरह के डेटा खंगाले. राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण से लेकर लैंसेट तक जो बताता है वो आपको चौंका सकता है.
दरअसल ये महज परंपरा नहीं है बल्कि एक चुप्पी है जो पीढ़ियों से गूंज रही है. देखा जाए तो ये वो समय है. जब इन महिलाओं को सहारे की जरुरत होती है. लेकिन उन्हें दी जाती है तो सिर्फ दीवारों की दूरी.गांव की ग्रामीण कविता निषाद कहती हैं- ये तो प्रकृति की देन है ऐसा नहीं होना चाहिए. उन्हें 5 दिनों तक घर के बाहर एक कमरे में रहना पड़ता है और पूजा कमरे में घुसने नहीं दिया जाता है. ये मान्यता कैसी है?
इस मामले में स्थानीय प्रशासन का कहना है कि वे जागरुकता फैलाने की कोशिश करेंगे. जिले के कलेक्टर डॉ. सर्वेश्वर नरेंद्र भुरे ने मिडिया से कहा- हमें आपके जरिए जानकारी मिली है. अब हम विशेष कैंपेन चलाएँगे और जागरुकता पैदा करने की कोशिश करेंगे. हम तो यही कहेंगे कि मासिक धर्म कोई कलंक नहीं, एक प्रक्रिया है — सृष्टि की, स्त्रीत्व की. जिस समय एक लड़की सबसे ज़्यादा असहज होती है. उस समय उसे अछूत मानना कहीं से हमारी संस्कृति नहीं हो सकती. ये सिर्फ हमारी चुप्पी का परिणाम है.
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